ऊद (अधुरी कहानी)
बुन्देली ज़ुबान के इस शब्द ऊद को शायद ही बुन्देलखण्ड की जमीन में रहने वाला व्यक्ति
न समक्षे ! इस चिरपरिचित हिन्दी शब्द कोष विहीन सम्बोधन, अपने नाम के अनुरूप उस
व्यक्ति की विशेषताओं को बडी ही सहजता से व्यक्त कर देता है , जो मुर्ख हो । इस नश्वर संसार का अदृश्य रचेयता भले ही
निराकार हो, परन्तु अपने रंगमच के रंगकर्मियों को उसने इस निर्दयी संसार में बडी ही निर्दयता से उतारा है ,इस संसार के रचेयता के संजीव पात्र को कथा कहानीयों के सजीव चरित्र में बॉधने का दु:साहस करना कितना कठिन कार्य होता है, यह तो कथा का सूत्रधर ही बतला सकता है, वैसे तो इस पावन बुन्देलखण्ड की माटी में जन्मे कई कलाकार थे , जो कला के उपासक तो थे ही उनकी ख्याती भी कम न थी, इन सब के होते हुऐ भी वे दरिद्रता में अपने परिवार का जीवन यापन कर रहे थे । ऐसे कई उदाहरण है । मेरे पडोस के डिमराई (बुन्देलखण्ड का लोक संगीत) गाने वाले बारे लाला हो या आला उदल के गायक शंकर पटैल जिन्हे उनके मित्रो गवार पाठा संबोधन से पुकारते थे या फिर शराबी राधेभैया । इसी क्रम के मेरे एक और पात्र है जिनका असली नाम तो कुछ और ही था, परन्तु पडौसी इन्हे तानसेन कह कर पुकारा करते थे, उन्हे भी इस सम्बोधन से किसी प्रकार की अपत्ती नही थी । नियमित संगीत का अभ्यास किया करते थे, हरमोनियम लेकर दहलान में बैठ राग अलापा करते । दुर्बल लम्बा शरीर उस पर तंग चूडीदार पजामा, अध पकी दाडी कुल मिलाकर इनकी भेषभूशा उन्हे सामान्य इंसान कम किसी नमूने सा दिखलाती थी । ठाकुर सहाब सम्बोधन तानसेन की बात ही क्या थी, शादी विवाह या अन्य राई कार्यक्रमों में (राई बुन्देलखण्ड का एक नृत्य) दो दो बिडनियों को अपने मिरदंग की ताल पर सारी सारी रात नचाते नही थकते थे । भेले उनके मुह में दॉत न हो कमर कमानी हो गयी हो परन्तु जब वे कमर में मिरदंग कस कर पतली पतली टांगे उठा कर उनकी तान पर दो दो नचनारी का सिर अपने कन्धे पर रख कर, सारी सारी रात नाचते तो देखने बाले आश्चर्य चकित रह जाते । नृत्यकी का नृत्य फीका पड जाये अगर मिरदंग पर संगत देने वाला कमजोर पड जाये , परन्तु ठाकुर सहाब का पुराना रिकार्ड था उन्हे कोई राई नृत्य में हरा नही सका था । बनवारी लाला जिनके कर्मो की वहज से पडौसी उन्हे पीठ पीछे ऊद कहते थे ,कैसा विचित्र संजोग था इस पुरूषत्व विहीन भारी भरकम देह के स्वामी के साथ जिसका पहाड सा जीवन खाते पीते उठते बैठते सहजतापूर्वक बीत रहा था । आज जहॉ दाल रोटी की जुगाड में आदमी पागलों की तरह रात दिन काम में जुटा रहता है वही बनवारी लाला की सुबह की शुरूवात शान्ती से होती सुबह उठते ही नहा धोकर फुर्सत हुऐ नही की देवी देवताओं की मूर्तियों सजा कर जोर जोर से शंख झालर धण्टे बजा बजा कर पडौसियों की नीदे खराब करते, शहर में कोई साधु सन्त आया तो सेवा में सदैव तत्पर्य रहते, प्रवचन , कथा सुनने में झण भर का विलम्ब भी इन्हे असहाय हो जाता था । चलो अच्छा है, इस भारत भूमि में ही तो धर्मी कर्मी रह गये है, शायद इनके नेक कर्मो से ही सभी का उद्धार हो जाये, सतसंग से सदसंस्कार एंव परोपकार की भावना जागृत होगी सेवा भाव आयेगा, अच्छे विचार, अच्छे संस्कारों को जन्म देते है, अच्छे संस्कारी व्यक्ति सदाचारी परोपकारी होते है, परन्तु ऊद को सत्संग में मजा आता था या उन्हे अध्यात्म की बातों में यह तो हम शायद नही कह सकते, परन्तु उन्ही के मित्रों की जुबान से हमने सुन रखा था कि इस करम जले से कुछ कराधरा तो जाता नही है, समय कांटने मंन्दिरों में चला जाता है । अध्यात्म या धर्म के ज्ञान की अपेक्षा इस मूर्ख से करना मिथ्या है । इन्ही बुन्देली माटी के
कुछ संजीव पात्रों में से एक थे, ऊद, माता
पिता का दिया हुआ नाम था, इस क्रम में दो नाम और है जिन्हे भुलाया नही जा सकता ,एक है पके कान की उत्तम दवा पं. सीताराम बैध ,एक मोटे कानून के जानकार हरदत्त पाण्डेय ,इनही मे एक थे मल्थू बैध जिनके आविस्कार की हरहर वटी का क्या कहना था
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