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जुलाई, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

लगजां गले कि फिर ये हंसी रात हो न हो ।

लगजां गले कि फिर ये हंसी रात हो न हो । शायद फिर इस जनम में , मुलाकात हो न हो ।। 2  लगजां गले की ------------------------------         हम को मिली है आज ये ,धडियां नसीब से        जी भ्‍ार के देख लीजिये हमको करीब से       फिर आप के नसीब में ये बात हो न हो      शायद फिर इस जनम में मुलाकात हो न हो ।      लगजां गले कि फिर ये हंसी रात हो न हो । पास आईये कि हम नही , आयेगे बार बार । बाहे गले में डाल के हम रो ले बार बार ।। आंखों से फिर ये प्‍यार की बरसात हो न हो । शायद फिर इस जनम में मुलाकात हो ना लग जा गले कि फिर ये हंसी रात हो न हो ।

ये शाम की तन्‍हाईयॉ ।फिल्‍म गीत

ये शाम की तन्‍हाईयॉ । ऐसे में तेरा गम ।।-2 पत्‍ते कहीं खडके । हवा आई तो चौके हम ।।-2          ये शाम की तन्‍हाईयॉ ।            ऐसे में तेरा गम ।।-2 जिस राह से तु आने को थे । उसके निशा भी मिटने लगे ।। आये न तुम । सौ सौ दफा आये गये मौसम ।।         ये शाम की तन्‍हाईयॉ ।           ऐसे में तेरा गम ।।-2 सीने से लगा तेरी याद को । रोती रही मै रात को ।। हालत पे मेरी चॉद तारे रो गये शबनम ।  ये शाम की तन्‍हाईयॉ । ऐसे में तेरा गम ।।-2

ये दिल और उनकी निगहों के साये । प्रेम पर्वत -1973

                                                फिल्‍म- प्रेम पर्वत -1973                                                  लता मंगेशकर ये दिल और उनकी निगहों के साये । मुक्षे धेर लेते है ,बाहों के साये ।। 2 हूं हूं - -- पहाडों को चंचल किरण चूमती है । हवा हर नदी का बदन चुमती है ।। यहॉ से वहॉ तक है चाहों के साये                   ये दिल और उनकी निगहों के साये ।                    मुक्षे धेर लेते है ,बाहों के साये ।। 2 लिपटते ये पेडों से बादल धने रे । ये पल पल उजाले ये पल पल अंधेरे ।। बहुत ठंडी ठंडी है राहों के साये ।।                      ये दिल और उनकी निगहों के साये ।                     मुक्षे घेर लेते है ,बाहों के साये ।। 2 ल ला ललला-------------------------------------- धडकते है दिल कितनी आजादियों से ।  बहुत मिलते जुलते है इन वादिंयों से ।। महोब्‍बत की रंगी पनाहों के साये ।                      ये दिल और उनकी निगहों के साये ।                     मुक्षे घेर लेते है ,बाहों के साये ।। 2                     ल ला ललला------------------------

दिल की आवाज भी सुन । फिल्‍म गीत

दिल की आवाज भी सुन । मेरे फ़साने पे न जा ॥ 2   मेरी नजरो की तरफ देख । जमाने पे न जा ॥       इक नजर देख ले । २       जीने की इजाजत दे दे       रूठने वा ले वो पह्ली सी       मुहब्बत दे दे ॥  २ इशक मासूम है इल्जाम लगाने पे न जा मेरी नजरो की तरफ देख । जमाने पे न जा ॥ दिल की आवाज भी सुन । मेरे फसाने पे न जा ॥ 2     वक्त इंसान पे    ऐसा भी कभी आता है    राह मे छोड के साया भी चला जाता है ॥ २ दिन भी निकलेगा कभी । रात के आने पे न जा मेरी नजरो की तरफ देख । जमाने पे न जा ॥   मै हकीकत हूं । ये एक रोज बताऊगगां

चॉद फिर निकला , मगर तुम न आये । फिल्‍म गीत

चॉद फिर निकला , मगर तुम न आये । जला फिर मेरा दिल , करू क्‍या मै हाये ।।            चॉद फिर निकला , मगर तुम न आये ।            जला फिर मेरा दिल , करू क्‍या मै हाये ।। ये रात कहती है ,वो दिन गये तेरे । ये जानता है दिल ,कि तुम नही मेरे ।। खडी हूं मै फिर भी , निगाहें बिछायें ।  चॉद फिर निकला , मगर तुम न आये । जला फिर मेरा दिल , करू क्‍या मै हाये ।।             सुलगते सीने से धुंआ सा उठता है ।             लौट चले,आओं कि दम धुटता है ।।             जला गये तन को बहारों के साये ।  चॉद फिर निकला , मगर तुम न आये । जला फिर मेरा दिल , करू क्‍या मै हाये ।।

मुंशियान बूढी-लधुकथा डॉ0कृष्‍ण भूषण सिंह चन्‍देल

                          मुंशियान बूढी     पति पत्‍नी के झगडों के गुड से मीठे, नमकीन स्‍वाद का रस भला वो क्‍या जाने जिसने कभी दाम्‍पत्‍य जीवन में प्रवेश ही न किया हो , पति पत्‍नी के वाक युद्ध में भी कितना माधुर्य,कितनी आत्‍मीयता होती है ।        मुंशी जी स्‍वस्‍थ्‍य युवा तीन पुत्रों व दो शादी सुधा पुत्रियों के पिता थे , छप्‍पन संतावन की उम्र पूरी लम्‍बी दाडी, लम्‍बे अनुभवों से सफेद हो चुकी थी, दुर्बल शरीर झुकी कमर में पीछे वे कपडे का बस्‍ता लटका कर अपने पुराने सोलह तानों के छातें का सहारा लेकर रोज कचहरी निकल जाया करते । छाता उन्‍ही की तरह पुराना हो चला था , परन्‍तु छाता उनकी बूढ़ी कमर का सहारा था ,धीर धीर छाता टेक टेक कर सुबह दस बजे कचहरी के लिये निकल पडते सन्‍ध्‍या सूरज जब अस्‍ताचल की ओर जाते, मुंशी जी अपने घर की राह लेते , घर आते ही जमीन पर बिछी दरी जिसके सामने लकडी की एक पेटी पर अपने झुके कमर का बोझ कम करते ,हाथ मुंह धोकर ,ऑखों पर विदेशी चश्‍मा एंव सिर पर स्‍वदेशी टोपी चढाकर लकडी की पेटी के सामने बैठ जाते ,चाय नाश्‍ता, खाना पीना, उनका वही आ जाया करता था । मुंशी जी की धर्

ऊद-अधुरी कथा

             ऊद (अधुरी कहानी)                                      बुन्‍देली ज़ुबान के इस शब्‍द ऊद को शायद ही   बुन्‍देलखण्‍ड   की जमीन में रहने वाला व्‍यक्ति न समक्षे ! इस चिरपरिचित हिन्‍दी शब्‍द कोष विहीन सम्‍बोधन, अपने नाम के अनुरूप उस व्‍यक्ति की विशेषताओं को बडी ही सहजता से व्‍यक्‍त कर देता है , जो मुर्ख हो ।  इस नश्‍वर संसार का अदृश्‍य रचेयता भले ही निराकार हो, परन्‍तु अपने रंगमच के रंगकर्मियों को उसने इस  निर्दयी  संसार में बडी ही निर्दयता से उतारा है  , इस संसार के रचेयता के संजीव पात्र को कथा कहानीयों के     सजीव चरित्र में बॉधने का दु:साहस करना कितना कठिन कार्य होता है, यह तो कथा का सूत्रधर ही बतला सकता है ,  वैसे तो   इस पावन बुन्‍देलखण्‍ड की माटी में जन्‍मे कई कलाकार थे , जो कला के उपासक तो थे ही उनकी ख्‍याती भी कम न थी, इन सब के होते हुऐ भी वे दरिद्रता में अपने परिवार का जीवन यापन कर रहे थे । ऐसे कई उदाहरण है । मेरे पडोस के डिमराई (बुन्‍देलखण्‍ड का लोक संगीत) गाने वाले बारे लाला हो या आला उदल के गायक शंकर पटैल जिन्‍हे उनके मित्रो  गवार पाठा संबोधन से पुकारते थे या फि

-: अब तो फि़जांओं में :-कृष्णभूषण सिंह चंदेल सागर

   -: अब तो फि़जांओं में :- अब तो फ़‍िज़ओं में, वो मस्तीयॉ कहॉ । जहॉ देखो, बिरानी ही बिरानी छॉई है ॥ हुंस्न के चहरे ब़ेंजान से हो गये । हर जव़ा दिलों पर उदासी, सी छॉई है । कॉफूर हो चला, खुशीयों का आलम । हर जज़बादों में, बिमारी सी छॉई है ।।      मैंख़ानों में रोज, मेले लगते     इब़ाद्दगाहों में, खांमोंशी सी छॉई हैं ।।      अब तो फ़‍िज़ओं में, वो मस्तीयॉ कहॉ ।      जहॉ देखो, बिरानी ही बिरानी छॉई है ॥ मदरसों में, अब ताल़ीम नही , हर ज़ज़बादों, हर जुबानों में । अब सियासी,  चालें छॉई है ॥ नफ़रत सी हो चली है दुनिया से , हर श़क्‍स के, चहरों पर खुदगजीं सी छॉई है ॥ बदलते वक्त ऐ आलम, का मिजाज तो देखों । इंसान की क्या , ? कुदरत ने भी, रंग बदलने की कसम सी खाई है ॥ अब तों फि़जओं में, वो मस्तीयॉ कहॉ । जहॉ देखों बिरानी ही बिरानी छॉई है ॥ बुर्जुगों से भी अब कायदा नही । ज़ाम से ज़ाम टकराने,  की तहजीब सी आई है ॥ किसे कहते हों, तुम इसान यहॉ ? यहॉ तो कपडों की तरह ,  बदलते रिस्तों की बॉढ सीं आई है ॥ हम अपनी ही पहचान भूल गये गली कूचों से घरों तक, अब नं

शराबी -लधु कथा- कृष्‍ण भूषण सिंह चन्‍देल

                                        शराबी  हिन्‍दी शब्‍द व व्‍याकरण का पूर्ण ज्ञान न होने के कारण शब्‍दों के उधेडबुन का दु:साहस शायद मुक्ष में इसलिये भी न था , कि कही शब्‍द विन्‍यासों की श्रृखला में कोई ऐसा अर्थहीन रंग न भर जाये कि सारी रचना ही परिहास का करण बन जाये , इसलिये कभी कभी मन के भावों को कागज में उतारने के प्रयासों में कई बार असफल हो जाता हूं ।    मन के विचारों को किसी कथा या रचना में बांधना कितना कठिन कार्य है , यह तो एक रचनाकार ही बतला सकता है । हमारे आस पास ही कितनी घटनायें कथा कहानियॉ बिखरी पडी रहती है ,और हम जीवन की यर्थाथ सच्‍चाई से कितने अनभिज्ञ बने अपनी कल्‍पनाओं के पात्र व घटनाओं को सूत्रों में बाधने के प्रयासों में कभी कभी सच्‍ची मौलिकता से इतना दूर होते चले जाते है कि कभी कभी कहानियों की घटनाओं व पात्रों में वह स्‍वाभाविकता की सौंधी गंध नही होती , जो यर्थाथ घटनाओं की स्‍वाभाविकता में हुआ करती है । एक लम्‍बे समय से किसी कहानियों की घटनाओं को बुनने के असफल प्रयासों में कभी कभी घटनायें अपनी स्‍वाभाविकता खो देती है , तो कभी कभी कथा के पात्र मूल कथा कहानी स

कलाकार -लधु कथा-

                                कलाकार        उस मायवी कलाकर के सुदृण सधें हाथों ने बेज़ान मिट्टी की मूर्तियों में जैसे जान फू़क दी थी ,ऐसा लगता था कि बेजान मूर्तियॉ चंद क्षणों में बोल उठेगी , कलाकार की इस अद्वितिय कलाकृतियों में एक कलाकृति ऐसी अनिंद्य सुन्‍दर यौवना की थी , जो शायद विधाता के संजीव रचना की कमियों को भी पूरी कर अपने अनुपम रूप लावण्‍य से इतरा कर मानों कह रही हो, देखों मै बेज़ान मिटटी की मूर्ति हूं , परन्‍तु तुम जीवित सुन्‍दरियों से भी अधिक सुन्‍दर हूं , देखो मेरे रूप लावण्‍य को , देखों मेरी देह आकृति के उतार चढावों को मुक्षमें कमी कहॉ है ?   सचमुच मिट्टी की आदमकद इस रूपसी के यौवन के देह आकृति को देख खजुराहों व कोर्णाक की सहज याद हो आती थी । गहरी झींल सी ऑखें मस्‍ती भरी देह आकार पुष्‍ट नितम्‍ब ,उन्‍नत स्‍वस्‍थ्‍य उरोज ,मिट्टी से बने अधोवस्‍त्रों की व्‍याख्‍या करने का दु:साहस शायद मुक्षमें न था । कैसे बांधा होगा इस रूपसी के यौवन को मिट्टी के बने, अद्योवस्‍त्रों में कैसे बॅधी होगी इस यौवना के देह के आकारों के उतार चढाव ,कैसे महीन पारर्दशी वस्‍त्रों की कल्‍पना को साक