काहे क्षूठी ,शान पे अकडे , किस वहम मे खोया रे । भूल गया ये जग दो दिन का मेला रे । सारी दुनिया मे हूकूमत , तो कर सका ना सिकन्दर भी। न जुल्म का क्षण्डा फहरा सका चंगेज भी । आये मुसाफिर चले गये कल भी कोई सिकंदर होगा फिर कोई जुल्मे चंगेज आयेगा ये दुनिया रैनबसेरा है । आया है ,तो जायेगा । ना तू आखरी इंसान है , तेरे पहले भी हुऐ है , इस तक्तों ताज के वा़रिश, तेरे बाद भी होगें, इंसानी कारनामों के किस्से, काहे क्षूठी शान पे अकडें किस वहम मे खोया रे । कोई नही यहाँ तेरा अपना, कुछ नही है ,यहाँ तेरा रे , मुसाफिरों की इस भीड़ मे, तू ही नही अकेला रे । मर्यादा का पाठ पढाने, आये थे ,भगवान श्रीराम भी , अज़र अमर न रावण रहा, न रहे भगवान भी, सभी आये इस भीड में, पर न जाने कहाँ खो गये । काहे क्षूठी शान पे अकडे , किस वहम में खोया रे । होगें तेरे कारनामें ,काबिले तारीफ, इतिहास ऐ तारीख मे फिर याद किये जायेगें, काहे क्षूठी शान पे अकडे , किस वहम मे खोया रे । डाँ. कृष्णभूषण सिंह चन्देल मो.न. 9926436304
साहित्य उन्माद मेरे हिन्दी साहित्य रचनाओं का एक संगृह है