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नि:शुल्क होम्योपैथिक चिकित्सा परामर्श हेतु हमारे ईमेल पर संपर्क करें

नि:शुल्क होम्योपैथिक चिकित्सा परामर्श हेतु हमारे ईमेल पर संपर्क करें        --------------------------------------------------------------   आज के इस चिकित्सा के व्यवसायीकरण के कारण निर्धन, गरीब परिवार एवं सामान्य वर्ग आधुनिक चिकित्सा की पहुंच से दूर होता जा रहा है एवं अपना उपचार कराने के लिए उसके पास कोई इतना पैसा नही होता कि वह इन बडे बडे अस्‍पतालों का खर्च उठा सके । । ऐसे में हमारी संस्था द्वारा यह प्रयास किया गया है कि, हम ऐसे जरूरतमंद रोगीयों   की सहायता नि:शुल्क ईमेल पर उन्हें उपलब्ध कराये । हमारी संस्था द्वारा बीमारी के लक्षण   होम्योपैथिक   सिद्धांत के अनुसार   चयन कर   परामर्श भेजा जाता है, जिससे वह घर बैठे   हमारी दवाओं का सेवन कर   इसका लाभ उठा सकते हैं । ऐसे व्यक्ति बिना किसी संकोच के हमारे ईमेल पर अपने रोग लक्षण लिखकर, हम से नि:शुल्क परामर्श प्राप्त कर सकते हैं । यह हमारे ब्लॉगर साइट पर पूरी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं ।.  M.9926436304 हमारा ईमेल krishnsinghchandel@gmail.com               jjsociety1@gmail.com हमारी साईड- http://krishnsinghchandel.blogs

राजयोग (कहानी) डॉ0कृष्‍ण भूषण सिंह चन्‍देल

                                                                                                                    राजयोग         निष्‍ठुर नियति के क्रूर विधान ने राधेरानी के हॅसते खेलते वार्धक्‍य जीवन में ऐसा विष घोला की बेचारी , इस भरी दुनिया में अपने इकलौते निकम्‍मे पुत्र के साथ अकेली रह गयी थी , राधेरानी की ऑखों में पुत्र के प्रति स्‍नेह था , परन्‍तु नौकरी छोड कर आने की नाराजगी भी थी । स्‍वर्गीय पति के जीवन काल की एक एक घटनायें किसी चलचित्र की भॉति मानस पटल पर घूमने लगी , मंत्री जी तो मंत्री जी थे ,   राजसी ठाट बाट के धनी ,   उच्‍च राजपूत कूलीन धनाढ्य , परिवार में जन्‍मे , हजारों की भीड में भी उनका दर्शनीय पुरूषोचित व्‍यक्तित्‍व अलग से ही अपने डील डौल तेजस्‍वी रौबदार चेहरा , उस पर किसी दस्‍यु की भॉति बडी बडी मूछों की वजह से अलग ही पहचाना जाता था , लाखों की भीड में वे अलग नजर आते थे । मंत्री पृथ्‍वी प्रताप सिंह राठौर अपने नाम के अनुरूप थे , राजनीति के मैदान में न जाने कितने विजयश्री प्राप्‍त कर उच्‍च मंत्रित्‍व पद पर सुशोभित हो चुके थे । उनके समकक्ष अन्‍य मंत्रियों की स्‍पर

ये शाम की तन्‍हाईयॉ ।फिल्‍म गीत

ये शाम की तन्‍हाईयॉ । ऐसे में तेरा गम ।।-2 पत्‍ते कहीं खडके । हवा आई तो चौके हम ।।-2          ये शाम की तन्‍हाईयॉ ।            ऐसे में तेरा गम ।।-2 जिस राह से तु आने को थे । उसके निशा भी मिटने लगे ।। आये न तुम । सौ सौ दफा आये गये मौसम ।।         ये शाम की तन्‍हाईयॉ ।           ऐसे में तेरा गम ।।-2 सीने से लगा तेरी याद को । रोती रही मै रात को ।। हालत पे मेरी चॉद तारे रो गये शबनम ।  ये शाम की तन्‍हाईयॉ । ऐसे में तेरा गम ।।-2

ये दिल और उनकी निगहों के साये । प्रेम पर्वत -1973

                                                फिल्‍म- प्रेम पर्वत -1973                                                  लता मंगेशकर ये दिल और उनकी निगहों के साये । मुक्षे धेर लेते है ,बाहों के साये ।। 2 हूं हूं - -- पहाडों को चंचल किरण चूमती है । हवा हर नदी का बदन चुमती है ।। यहॉ से वहॉ तक है चाहों के साये                   ये दिल और उनकी निगहों के साये ।                    मुक्षे धेर लेते है ,बाहों के साये ।। 2 लिपटते ये पेडों से बादल धने रे । ये पल पल उजाले ये पल पल अंधेरे ।। बहुत ठंडी ठंडी है राहों के साये ।।                      ये दिल और उनकी निगहों के साये ।                     मुक्षे घेर लेते है ,बाहों के साये ।। 2 ल ला ललला-------------------------------------- धडकते है दिल कितनी आजादियों से ।  बहुत मिलते जुलते है इन वादिंयों से ।। महोब्‍बत की रंगी पनाहों के साये ।                      ये दिल और उनकी निगहों के साये ।                     मुक्षे घेर लेते है ,बाहों के साये ।। 2                     ल ला ललला------------------------

दिल की आवाज भी सुन । फिल्‍म गीत

दिल की आवाज भी सुन । मेरे फ़साने पे न जा ॥ 2   मेरी नजरो की तरफ देख । जमाने पे न जा ॥       इक नजर देख ले । २       जीने की इजाजत दे दे       रूठने वा ले वो पह्ली सी       मुहब्बत दे दे ॥  २ इशक मासूम है इल्जाम लगाने पे न जा मेरी नजरो की तरफ देख । जमाने पे न जा ॥ दिल की आवाज भी सुन । मेरे फसाने पे न जा ॥ 2     वक्त इंसान पे    ऐसा भी कभी आता है    राह मे छोड के साया भी चला जाता है ॥ २ दिन भी निकलेगा कभी । रात के आने पे न जा मेरी नजरो की तरफ देख । जमाने पे न जा ॥   मै हकीकत हूं । ये एक रोज बताऊगगां

चॉद फिर निकला , मगर तुम न आये । फिल्‍म गीत

चॉद फिर निकला , मगर तुम न आये । जला फिर मेरा दिल , करू क्‍या मै हाये ।।            चॉद फिर निकला , मगर तुम न आये ।            जला फिर मेरा दिल , करू क्‍या मै हाये ।। ये रात कहती है ,वो दिन गये तेरे । ये जानता है दिल ,कि तुम नही मेरे ।। खडी हूं मै फिर भी , निगाहें बिछायें ।  चॉद फिर निकला , मगर तुम न आये । जला फिर मेरा दिल , करू क्‍या मै हाये ।।             सुलगते सीने से धुंआ सा उठता है ।             लौट चले,आओं कि दम धुटता है ।।             जला गये तन को बहारों के साये ।  चॉद फिर निकला , मगर तुम न आये । जला फिर मेरा दिल , करू क्‍या मै हाये ।।

मुंशियान बूढी-लधुकथा डॉ0कृष्‍ण भूषण सिंह चन्‍देल

                          मुंशियान बूढी     पति पत्‍नी के झगडों के गुड से मीठे, नमकीन स्‍वाद का रस भला वो क्‍या जाने जिसने कभी दाम्‍पत्‍य जीवन में प्रवेश ही न किया हो , पति पत्‍नी के वाक युद्ध में भी कितना माधुर्य,कितनी आत्‍मीयता होती है ।        मुंशी जी स्‍वस्‍थ्‍य युवा तीन पुत्रों व दो शादी सुधा पुत्रियों के पिता थे , छप्‍पन संतावन की उम्र पूरी लम्‍बी दाडी, लम्‍बे अनुभवों से सफेद हो चुकी थी, दुर्बल शरीर झुकी कमर में पीछे वे कपडे का बस्‍ता लटका कर अपने पुराने सोलह तानों के छातें का सहारा लेकर रोज कचहरी निकल जाया करते । छाता उन्‍ही की तरह पुराना हो चला था , परन्‍तु छाता उनकी बूढ़ी कमर का सहारा था ,धीर धीर छाता टेक टेक कर सुबह दस बजे कचहरी के लिये निकल पडते सन्‍ध्‍या सूरज जब अस्‍ताचल की ओर जाते, मुंशी जी अपने घर की राह लेते , घर आते ही जमीन पर बिछी दरी जिसके सामने लकडी की एक पेटी पर अपने झुके कमर का बोझ कम करते ,हाथ मुंह धोकर ,ऑखों पर विदेशी चश्‍मा एंव सिर पर स्‍वदेशी टोपी चढाकर लकडी की पेटी के सामने बैठ जाते ,चाय नाश्‍ता, खाना पीना, उनका वही आ जाया करता था । मुंशी जी की धर्

ऊद-अधुरी कथा

             ऊद (अधुरी कहानी)                                      बुन्‍देली ज़ुबान के इस शब्‍द ऊद को शायद ही   बुन्‍देलखण्‍ड   की जमीन में रहने वाला व्‍यक्ति न समक्षे ! इस चिरपरिचित हिन्‍दी शब्‍द कोष विहीन सम्‍बोधन, अपने नाम के अनुरूप उस व्‍यक्ति की विशेषताओं को बडी ही सहजता से व्‍यक्‍त कर देता है , जो मुर्ख हो ।  इस नश्‍वर संसार का अदृश्‍य रचेयता भले ही निराकार हो, परन्‍तु अपने रंगमच के रंगकर्मियों को उसने इस  निर्दयी  संसार में बडी ही निर्दयता से उतारा है  , इस संसार के रचेयता के संजीव पात्र को कथा कहानीयों के     सजीव चरित्र में बॉधने का दु:साहस करना कितना कठिन कार्य होता है, यह तो कथा का सूत्रधर ही बतला सकता है ,  वैसे तो   इस पावन बुन्‍देलखण्‍ड की माटी में जन्‍मे कई कलाकार थे , जो कला के उपासक तो थे ही उनकी ख्‍याती भी कम न थी, इन सब के होते हुऐ भी वे दरिद्रता में अपने परिवार का जीवन यापन कर रहे थे । ऐसे कई उदाहरण है । मेरे पडोस के डिमराई (बुन्‍देलखण्‍ड का लोक संगीत) गाने वाले बारे लाला हो या आला उदल के गायक शंकर पटैल जिन्‍हे उनके मित्रो  गवार पाठा संबोधन से पुकारते थे या फि